ध्यान और शरीर दोनों अलग-अलग हैं, इस शरीर के माध्यम से ध्यान नहीं हो सकता, शरीर तो केवल बाह्य तरंगों को स्वीकार करता है और अपनी तरंगो को दूसरों की ओर प्रेषित करता है, जिसके माध्यम से उसके मन के भाव या अन्दर के विचार स्पष्ट होते हैं, कि वह क्रोध कर रहा है, प्रेम कर रहा है या घृणा कर रहा है, सुख काव भ है य दुःख दुःख का भाव है है ब Schose
शरीर तो अपने आप में बहुत छोटा सा भाग है- जिसकी उम्र साठ साल है, पचास साल है, सौ साल है है शरीर के माध्यम से ध्यान प्राप्त नहीं किया जा सकता, इस शरीर से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है— फिर भी प्राण को अवस्थित होने के लिये कोई आधार चाहिये, उस आधार को शरीर कहा गया है। किसी देवता को बैठने के लिये सिंहासन होना चाहिये, उस सिंहासन को शरीर कहा गया है, वह सिंहासन अपने-आप में देवत नहीं है है सिंह सिंह केवल केवल इसलिये है जिससे कि उसके ऊप देवता सापित हो बैठ बैठ बैठ। सिंह केवल केवल इसलिये है जिससे जिससे उसके उसके ऊप ऊपर देवता
शरीर भी एक सिंहासन है- जिस पर प्राण अवस्थित है, शरीर तो एक धरातल है- जिस पर अद्वितीय विभूमि अवस्थित है, शरीर वह माध्यम है- जिस पर ईश्वर अंश, देवता ब्रह्म या जो कुछ भी है वह एक रूप में, एक आकार में खड़ा है। इसलिये खड़ा है क्योंकि, दूसरे आकार को समझने लिये एक आकार ग all'avore a एक पशु ही दूसरे पशु को समझा सकता है। एक बन्दर दूसरे बन्दर को समझा सकता है— एक बन्दर एक गाय को नहीं समझा सकता। ठीक इसी प्रकार से एक मनुष्य ही दूसरे मनुष्य को समझा सकता है है
ब्रह्म को भी इसीलिये शरीर धारण करना पड़ता है जिससे उसके समान जो दूसरे मनुष्य हैं, उनको आसानी से समझाया जा सके सके सके सके सके सके सके सके सके सके सके सके ज ज जrigH इसलिये राम को भी एक शरीर धारण करना पड़ा है, अतः उच्चकोटि के सद्गुरू को भी एक शरीर धारण करना पड़ता है— और वैसी ही अवस्था में रहना पड़ता है, जिस अवस्था में आस-पास के लोग रहते हैं, जिससे कि वे समझ सकें और उसे अपना ही एक हिस्सा मान सकें— और उसकी बात सुन सकें— और समझ सकें हजारों-लाखों व्यक्तियों में से एक बिरला ऐसा निकल जाता है, जो उनकी उंगली पकड़ कर आगे बढ़ने क क्रिया प्रम्भ कर लेतर लेत है।।।।।। है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है हैias हजारों-लाखों tiva हजारों-लाखों व्यक्तियों में से किसी एक ही ऐसी ऐसी चेतना होती है, जो उनकी वाणी को समझ सकता है हजारों-लाखों व्यक्तियों में से किसी एक में ही ऐसे भाव जाग्रत होते हैं, जब वह सद्गुरू की, उस अद्वितीय व्यक्तित्व की उंगली पकड़ सकता है, उनके पास रह सकता है–उनके साथ चलने की क्रिया प्रारम्भ करता है, वह पहचान लेता है, उसकी आँख पहचान लेती है- 'यह व्यक्तित्व साधारण नह।ह्तित्व साधारण नहह्तित्व
इसने का साधारण मनुष्य शरीर तो धारण किया है, इसके क्रिया-कलाप भी वैसे ही हैं, जैसे एक आम गृहस्थ के होते हैं, इसका रहन-सहन भी वैसा ही है, जैसे एक आम गृहस्थ का होता है, इसे भी हानि-लाभ, सुख-दुःख व्याप्त होता है, यह उद उदास होता है, रोता है, चिन्ता करता है, मगर फिर भी इन सबसे परे है है
वह इस विश्व की विभूति है, उसको पहचानने के लिये शरीर की आँखों से काम नहीं चलेगा, उसको पहचानने के लिये मन की आँखें खोलनी पड़ेगी, उसको पहचानने के लिये ध्यान की अवस्था में जाना होगा और जो व्यक्ति ध्यान की अवस्था में जाता है, उसको तब विराट रूप का अपने-आप में दर्शन हो जाता है। अर्जुन, कृष्ण को एक सामान event मगर कृष्ण ने जब अर्जुन को ध्यान की सातवीं अवस्था में पहुँचा कर, अपने-आपको स सामने खड़ा किया तो, अर्जुन एक ब ब ही में में समझ समझ गय ये ये ये स ये हैं हैं एक एक अद अद अद अद अद अद अद अद में अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद अद tiva सद्गुरू चाहें तो किसी योग्य व्यक्ति को छलांग लगवा कर सातवीं अवस्था में पहुँचा सकते हैं, जैसे कृष्ण ने व्यामूढ़ अर्जुन को, मोहग्रस्त अर्जुन को एक छलांग के माध्यम से ध्यान की सातवीं अवस्था तक पहुँचा दिया— और पहुँचाते ही उसकी जो हजार-हजार आँखे जाग्रत हुई, उसके माध्यम से वह कृष्ण— सामान्य दिखाई देने वाले कृष्ण के विराट रूप को देख सक। ठीक उसी प्रकार सद्गुरू, वह अद्वितीय विभूति, यदि चाहें तो किसी भी शिष्य, किसी भी व्यक्ति को ध्यान की उस अवस्था में पहुँचा सकते हैं, जहाँ उस व्यक्ति के सामने वास्तविकता स्पष्ट हो जाती है, उसकी अद्वितीयता स्पष्ट हो जाती है, उसकी महानता स्पष्ट हो जाती है।
प्रश्नः क्या स्त्री और पुरूष की ध्यान की विधि याँ अलग-अलग हैं?
देहगत tiva यह तो ... जो स्त्री है, वही दूसरे शब्दों में पुरूष है, जो पुरूष है, वही दूसरे शब्दों में स्त्री है। तुम स्त्री और पुरूष को अलग-रूपों में— शरीर की आकृति और बनावट के कारण अलग-अलग देख रहे हो हो आध्यात्मिक और चेतनात्मक दृष्टि से तो दोनों कोई अन अन्तर है ही नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं ही ही दोनों एक ही स्थिति में एक ही प्रकार की भाव-भूमियों पर खड़े हैं हैं उच्चकोटि की स्त्रियां भी हुई हैं- कात्यायनी, मैत्रेयी, चैतन्या, वैचार्या, गौतमी— ये सब अपने आप में अद्वितीय विभूतियां थीं, उतनी ही ब्रह्म को प्राप्त होती हुई, उतनी ही मनुष्यता को प्राप्त होती हुई, उतनी ही ध्यान अवस्था को प्राप्त होती हुई , जैसे कि एक ऋषि हुआ है। इसलिये पुरूष और स्त्री को अलग-अलग देखना आध्यात्मिक दृष्टि से सम सम्भव ही नहीं है है केवल बाह्य रूप से, केवल शारीरिक अवस्था से हम उसमें भेद करते हैं- यह तो ऊपरी भाग है, यह ऊप ऊपरी भेद है, आन्तरिक रूप से कहीं कोई कोई भेद है है है।।। है है है है है है है
इसलिये जिस तरीके से पुरूष ध all'avore जिस प्रकार से एक ही छलांग में एक सद्गुरू, एक कृष्ण, अर्जुन को सातवें स्थल पर पहुँचा सकते हैं तो—किसी स्त्री को भी पहुँचा सकते हैं, इसलिये इन दोनों के लिये ध्यान की विधि अलग-अलग संभव ही नहीं है।
प्रश्नः कहते हैं कि ध्यान की गहराई में उतरना च ाहिये, यह गहराई में उतरना क्या है— इस गहराई में क Cosa vuoi fare?
मैं इसका उत्तर ऊपर दे चुका हूँ, गहराई में उतरने का तातापर्य यह नहीं है कि कुएं में छलांग लगानी है गहराई में उतरने की भावना यह भी नहीं कि कि झटके से एक स्थान से दूसरे स all'avore यहां मेरे कहने का तात्पर्य है- हम एक स्थिति से दूसरी स्थिति की ओर बढ़ते हैं, जो पहली स्थिति है 'देहगत स्थिति' उससे दूसरी स्थिति में पहुँच, फिर तीसरी स्थिति में पहुँचे फिर चौथी स्थिति में पहुँचे —और ऊपर मैंने बताया- उन सातों स्थितियों में से क्रमशः उतरते हुये, जिस जगह हम खड़े होते हैं- वह ध्यान की अवस्था है, वह पूर्णानन्द की अवस्था है है है है है है है है है है है है है इसी तरीके से, अभ्यास के माध्यम से उन सातों अवस्थाओं को प्राप्त करते हुये, हम उन स्थितियों को प्राप्त कर सकते हैं, जिसे शास्त्रें में, वेदों में ब्रह्मानन्द कहा गया है। जिसको पूर्णानन्द कहा गया है।
जिसको सही अर्थों में आनन्द की संज्ञा से विभूषित किया गया है है इस गहराई में उतरने का अपना ही एक आनन्द है, अपना ही एक आलौकिक सौन्दर्य है ज्यो-ज्यों हम बाहर की ओर बढ़ते रहते हैं, त्यों-त्यों झुर्रियां समय के प्रभाव से आती हती हती हैं त त प कु कु ieri अन्दर उतरते रहते है, त्यों-त्यों चेहरे की तेजस्विता बढ़ती रहती है, चेहरे का प्रभाव बढ़ता रहता है, चेहरे का और शरीर कर सौनर सौनरय बढ़तरहता।।। अन्दर से जो रश्मियां इस शरीर को भेद कर प्रवाहित होती हैं, वे आस-पास के वातावरण को स्वच्छ और पवित्र बना देती है।
यदि एक आश्रम में चाहे चालीस या पचास शिष्य हों और चाहे अच्छे से अच्छे व्यक्ति हो, मगर उनके पास यदि एक सद्गुरू नहीं होता तो, पचासों शिष्य अपने आप में मृत अवस्था में अनुभव करते हैं। उनको ऐसा लगता है कि जैसे-हम मरे हुये हैं—चलते तो हैं मगर काम करने में उतना जोश नहीं रहता— बात करने में वह क्षमता नहीं आ पाती, क्योंकि—उनके बीच में वह तनाव निकल जाता है, जिस तत्व को गुरू कहा गया Sì, जिस तत्व को सद्गुरू कहा गया है।
ऐसी स्थिति में हम बाह्य दृष्टि से भी पहचान सकते हैं कि यह व्यक्ति आलौकिक है या सामान्य है। सामान्य गुरू या सामान्य साधु आश्रम से चला जाये, तो शिष्य प्रसन्न होते हैं- यह चला गया, अब हम अपनी मनमौजी कर सकेंगे, मनमर्जी से कूद सकेंगे, नाच सकेंगे, मजे से खा-पी सकेंगे– – और दौड़ सकेंगे, जो कुछ करना होगा अच्छा या बुरा कर सकेंगे। दूसरा सद्गुरू होता है, जिनके जाने से विषाद उत all'avore आँख में आँसू झलकने लगते हैं, ऐसा लगता है, जैसे शरीर तो, पर प्राण निकल गया- यह (सामान्य
पूरे महाभारत क Schose ठीक आश QIम में भी एक अद अद विभूति— एक सामान्य दिखाई देने वाला व all'avore है, सब कुछ समाप्त हो गया है, शिष्य मृतप all'avore बाहरी आँखों से ही हम ऐसी स्थितियों का अनुभव कर सके हैं कि- यह व्यक्ति साधारण है या अलौकिक है और ऐसे व्यक्ति के माध्यम से हम अपने चित्त की अनेक वृत्तियों को पार करते हुये अन्तरमन की गहराई में उतर सकते हैं।
प्रश्नः कृपया आपने जो ध्यान की अवस all'avore a
मैंने अभी आपको समझाया, समय इसके लिये अपने -आप में कोई महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है, यह तो एक छलांग है आप में हिम हिम्मत है, आप कितनी गहराई तक छलांग लगा सकते सकते यदि आप डरपोक है तो ... आप अपने आपको कितना खोलते हैं, यह आप पर निर्भर है, आप अपने आप को कितन कितना सौंपते हैं, यह इस बात पर निर्भर है जितन जितन आप खुलेंगे खुलेंगे खुलेंगे खुलेंगे खुलेंगे खुलेंगे खुलेंगे खुलेंगे खुलेंगे खुलेंगे खुलेंगे खुलेंगे खुलेंगे खुलेंगे खुलेंगे खुलेंगे खुलेंगे खुलेंगे खुलेंगे खुलेंगे खुलेंगे सकेंगे सकेंगे सकेंगे सकेंगे सकेंगे सकेंगे सकेंगे ही ही ही आप आप आप आप आप आप आप आप आप आप आप आप आप आप ही आप आप आप आप आप आप आप आप आप tiva
यह कोई एक पाठशाला नहीं है, पहली क्लास के बाद दूसरी, फिर तीसरी और चौथी क्लास पार करने पर ही सोलहवीं क्लास पार कर क सकते सकते यह तो एक क्रिया है, यदि सद्गुरू की कृपा हो गई, यदि उन्होंने एहसास कर लिया कि यह व all'avore को यह विश्वास हो गया, कि यह मुझ में लीन होने की क्रिया प्राप्त करने लगा है— जब सद्गुरू यह अनुभव करने लगते हैं कि, मेरे पांव में कांटा चुभा है और इसको दर्द अनुभव हुआ है— यह शरीर से अलग हटकर प्राणों से जुड़ने की क्रिया प्रारम्भ कर रहा है। जब प्राणों से जुड़ने की क्रिया प्रम्भ हो जाती है है, तो धीरे-धीरे आत्मसात होने की क प प औ औ औ में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में में tiva समाने के बाद हम चाहे तो भी के पµi
शिष्य की भी यही अवस्था है, जब वह की तरह अपने आप में निश्चिन्त होकर यह विचार कर लेता है मुझे मिल जाना है, रूकना ही ही नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं tiva मिट जायेगा तो मिट जाएगा और ज all'avore उसका मीठा पानी समाप्त हो गया और वह खारे पानी में बदल गई— उसकी उसे कोई परवाह नहीं, क्योंकि समाप्त होकर वह अपने आप में महासमुद्र कहलाई, फिर छोटी सी नदी नहीं कहलाई, वह परमब्रह्म में लीन हो गई।
शिष्य की भी यह अवस्था है, जब अपने आपको हटाकर पूर्णरूप से सद सद्गुरू के प all'avore a अवस्था है, जो पूर्णता की अवस्था है, जो चैतन्यता की अवस्था है
वह जितना गुरू पर विश्वास करता जाता है, उतना ही गुरू उसको आगे बढ़µ वह जितना उसमें एकाकार होता रहता है, उतना ही गुरू उसको आगे ठेलता ness. आधा-अधूरा समर्पण है, तो गुरू तटस्थ भाव से, द्रष्टा भाव से देखता रहता है- उनके विकारों को, उसके चित्त को, क्योंकि वह समझ जाता है कि, इसने अपने प्राणों को मेरे प्राणो में समाहित करने की दस प्रतिशत क्रिया की है- तो वह दस प्रतिशत ही उससे गहराई में उतारता है— इसके आगे वह उत उतार भी नहीं सकता - उसके लिए संभव नहीं
मगर जिस क्षण गुरू यह निश्चय कर लेता है कि अब मुझे इसको उठाकर परम अवस्था तक पहुँचा देना है, तो फिर भले ही शिष्य में कितने ही विकार हों, फिर भले ही वह शरीर की अवस्था पर जिन्दा हो, किसी भी स्थल पर हो- गुरू उसको उठाता है और सीधे ही उसे उस ध्यान के महासमुद्र में उतार देता है— जो क्षीर सागर है— जहां पूर्णब्रह्म विराजमान हैं, जहां शेषनाग की शय्या पर ब्रह्म लेटे हुए हैं, जहां पूर्णता उनके चरण दबा रही होती है- उस अवस्था पर सद्गुरू चाहें तो सामान्य, अधम अजामिल जैसे पापी को भी एक छलांग में वहां उतार सकते हैं हैं
ये दोनों स्थितियां हैं, शिष्य के तरफ से औ और गुरू के तरफ से भी शिष्य कितना अपने आपको सौंपता है, गुरू कितना उसको उठाकर फेंकतµi इसलिये वहां- उस ध्यान की गहराई में एक सैकण्ड में भी पहुँच सकते— और पांच हजार वर्षों में पहुँच सकते हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं यह शिष्य के क्रियाकलापों पर, उसके चिन्तन पर— और सही शब्दों का प all'avore समर्पण के माध्यम से ही गुरू निश्चित कर सकता है कि, मुझे इसको ध्यान की उस अवस्था में पहुँचना है, जिसे ब्रह्मतत्व कहा गया है, जिसको पूर्णता कहा गया है, जिसको पूर्णमदः पूर्णमिदं कहा गया है, जिसको परमहंस अवस्था कहा गया है, जिसको ईश्वर कहा गया है।
जब एक tiva जब एक नर-नारायण बन जाता है, तब जीवन एक स सर्वोच्च स्थिति बन जाती है जब एक अदना सा व्यक्तित्व पूर्णता प्राप्त कर लेता है, तब पूरा संसार उसकी ओर ताकने लग जाता है, तब हजारों-लाखों लोगों का कल्याण करने में वह समर्थ हो पाता है, फिर भले ही वह गृहस्थ में दिखाई दे- वह शादी भी कर सकता है, वह हानि-लाभ, सुख-दुःख, में हंसता-मुसराता रहता है, मगर इसके साथ ही साथ वह अपने में पूर्णता से सजग भी हत रहता है।। है है है है है है है है है है है है है
आवश्यकता तो उस जगह पर पहुँचने की है - र उस जगह पर पहुँचने की क all'avore उस जगह पहुँचने के लिये केवल एक ही शब्द का प्रयोग किया जा सकता है, वह है- समर्पण। समर्पण के पहले गुरू उसकी सैकड़ों बार परीक्षा लेते रहते हैं, हजारों बार उसकी परीकogo उसको तोड़ा जाता है, खींच कर तार बनाया जाता है, मगर फिर भी वह सोना उफ् नहीं करता, क्योंकि उसने समर्पण कर दिया है स्वर्णकार के हाथों में— और स्वर्णकार उसको ऐसा मुकुट बना देता है, जो मनुष्य नहीं देवताओं के सिर पर शोभायमान होता है। इसीलिये कबीर ने कहा है- गुरू कुम all'avore भीतर भीतर सहज के बाहर बाहर चोट।
जिस प्रकार कुम्हार घड़े को बनाते समय पर बाहर से चोट करता रहता है और अन all'avore यदि मैं इसको तोड़ता हूँ, तो यह कहां जाकर खडहा होत? यदि मैं इसकी परीक्षा लेता हूँ, तो यह कितना कच्चा कच्चा? शिष्य निरन्तर सजगता के साथ जुड़े रहने की प all'avore इस कशमकश में जो शिष्य जीत जाता है, वही हो ज जाता है, उसे ही गुरू दोनों हाथों में उठाकर सीधे ध all'avore शिष्य जितना टूटेगा, जितना समर्पण की पर खरा उतरेगा, उतना ही गुरू उसको एक-एक सीढ़ी पार कराता हुआ आगे तक पहुँचा देंगे देंगे देंगे देंगे देंगे देंगे देंगे देंगे देंगे देंगे देंगे देंगे देंगे देंगे देंगे देंगे
प्रश्नः आपने सजगता शब्द का प all'avore a
सजगता का तात्पर्य है- हर समय अपने आपको सहज रखना, हर समय मन में विचार रखना कि मुझे उस जगह पहुँचना है, जहां पर मेरी पच्चीस पीढि़यां नहीं पहुँच पाई, मैं पैदा होकर मरना नहीं चाहता, मैं कुछ अलग हटकर रहना चाहता हूँ, मैं कुछ ऐसा करना चाहता हूँ जो अपने आप अद अद्वितीय हो, जो मेरी पच्चीस पीढि़यों में नहीं हुआ है है जिस समय यह भाव आता है और इस भाव को निरन्तर मानस में बनाये रखता है, वह सजग रहता है। उसको यह मालूम होता है- मेरा लक्ष्य क्या है? उसको यह मालूम होता है- मुझे क्या करना है? सजगता के लिये उसको अपने माँ-बाप, भाई-बहन, संबंधी-रिश्तेदारों से मोह छोड़ना पड़ता है, क्योंकि वह या तो गुरू से मोह रख सकेगा या फिर अपने परिवार से मोह रखेगा- क्योंकि ये दोनों तीर के अलग-अलग ध्रुव हैं। तीर तो एक ही है, मगर तीर का अगला हिस्सा नुकिला है, धारदार है— और पीछे का हिस्सा फलक है। यदि शिष्य फलक में रहेगा तो पीछे ही रहेगा, जिस प all'avore a जो अगले नुकिले भाग पर है, उसको चुभेगा भी, दर्द भी होगा और सजग भी रहेगा— और सजगता जीवन की श्रेष्ठता है, तो बड़ी मुश्किल से प्राप होती होती है है है है है है जो सजग रहेगा उसे निरन्तर यह ध all'avore वह चाहे कुछ भी आदेश दे- मुझे इस पर विचार नहीं करना है, कि गुरू ने मुझे क्या आदेश दिया है? क्यों आदेश दिया है? यह उनका काम है। यदि मैं समझ जाऊंगा तो मैं खुद ही गुरू न बन जाऊंगा?
मैं तो एक शिष्य हूँ मैं तो मिट्टी का एक लौंदा हूँ वह मुझे क्या बनाना चाहते हैं, यह तो वे ही जाने— अपने उनके उनके ह ह में सौंप सौंप दिय दिया— बना बनायेंगे घड़ायेंगे घड़ायेंगे। ज ज uire यदि दीपक बनायेंगे तब भी मैं अंधकार को दूर कर सकूाासकूायदि सुराही बना देंगे- तब ही मैं सैकड़ों लोगों की प्यास बुझा सकूंगा। मिट्टी को चिन्तन करने की आवश्यकता नहीं, सजग रहने की आवश्यकता है कि मुझे निरन्तर कुम्हार के हाथों में रहना है है साक्षीभाव का तात Qnare मालूम है, मैं लेक लेकर यहां बैठा हूँ और मुझे तीन घंटे बाद यहाँ से बाहर निकल जाना है- यह साक्षीभाव है इसी प्रकार जीवन में भी माँ के प्रति, भाई के प्रति, बाप के प्रति, पत all'avore जो उसमें लिप्त नहीं है, जो देखता रहता है, माँ कहती है- उसका भी कहना मानता है, पत्नी कहती है- उसक भी कहना मा है, सबका कहना मा है, मगर अपने आप नहीं नहीं लक लकrig di ये कह nessuna मेरा मूल लक्ष्य इनके बीच में स्वयं को समाप्त करना नहीं है है इस शरीर के तल पर जीवित रहकर समाप्त होना नहीं है।
इस शरीर के तल से नीचे उतर कर उस जगह पहुँचना है— जहाँ पहुँचने पर ब्रह्मत्व प्राप्त होता है— जहाँ पहुँचने पर ईश्वरत्व प्राप्त होता है— जहाँ पहुँचने पर नारायणत्व प्राप्त होता हैं— और उस जगह पहुँचने पर ही पूरा संसार उसे देखेगा और आने वाली पीढि़यां उसकी सराहना करेंगी, उसकी ही अपितु उसके माता-पिता की भी, उसके कुटुम्ब की भी, उसके परिवारजनों की भी। जब कृष्ण को स्मरण करते हैं राधा को भी स्मरण करते ही है, कृष्ण को स्मरण करते हैं यशोद और और नन्द को भी स सरण करते हैं हैं वे जुड़े हुये औriga
वह व्यक्ति जो सजग है, सद्गुरू के चरणों में लीन होकर ध्यान अवस्था और समाधि तक पहुँचता है, तो उसके साथ-साथ उसके माँ-बाप भी अपने-आप सम्मान योग्य बन जाते हैं, धन्यभागी बनते हैं, अहोभागी बनते हैं, गर्व करते हैं - और उस पीढ़ी का वह एक वरदायक व all'avore a निरन्तर उनके बारे में सोचते हुये भी वह शरीर से गुरू के चरणों में बना रहता है, क्योंकि सिंहासन तो वही है, जिस पर देवता को स्थापित करना है, जब सिंहासन ही प्राप्त नहीं होगा, तो देवता का कहाँ स्थापन होगा? जब सिंहासन ही हजार मील दूर होगा, तो फिर देवता को कहां स्थिापित किया जायेगा?
इसलिये विचार माँ-बाप, भाई-बहन तक रखते हुये भी वह साक्षीभाव से देखता रहता है- माँ अपना सुख-दुःख भोगते रहती है, बाप अपना सुख-दुःख भोगता रहता है- जिसका जैसा कर्म है वह उसी प्रकार फल भोग रहा है, वह खड़ा-खड़ा रहता है— मगर अपने सिंहासन रूपी शरीर को, गुरू के हµ गया है, जिस मूर्ति को ब्रह्म कहा गया है।
प्रश्नः ब्रह्मचर्य क्या है? क्या गृहस्थ व्यक्ति भी ध्यान कर सकता है? साधु क्या है, क्या ध्यान के लिये साधुता या ब्रह nello
ब्रह्मचर्य का तात्पर्य गलत लगा लिया गया है और सैकडों वर्षों से इस शब्द की जितनी दुर्गति हुई है, उतनी किसी शब्द की नहीं हुई है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है tivamente हमने अविवाहित रहने को ब all'avore जबकि, ब्रह्मचर्य का तात Qnare जब व्यक्ति ब all'avore ब्रह्मचारी का ध्यान से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है, ध्यान के लिये जरूरी नहीं है कि वह ब्रह्मचारी बने, क्योंकि ध्यान की अंतिम अवस्था ब्रह्मचर्य है— जब वहाँ पहुँचेगा, तब वह ब्रह्मचारी कहला सकेगा, प्रारम्भ में ब्रह्मचारी कैसे कहला सकेगा? प्राbeभ में तो श शरीरचारी कहलायेगा, ब्रहामचारी या ब्रहरमचर nello
साधुता का तात्पर्य—भगवे कपड़े पहनने की क्रिया को साधुता नहीं कहते हैं, जो एकाग्र रह सकता है, जो निर्विकार रह सकता है, जिसके मन में, जिसके चित्त में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं होता, जो किसी स्त्री को देखकर मोहान्ध नहीं होता , जो विषय-वासनाओं में लीन नहीं होता, जो अपने में साक्षीभाव सीख गय गय है, जिसने अपने आपको साध लिया है, जिसने को साध लिया है वह वह साधु है है है है है है है वह वह वह वह स स है है है
यह आवश्यक नहीं है कि, केवल साधु ही ध्यान कर सकता है— और सही अर्थों में कहा जाये तो, साधु ध्यान कर ही नहीं सकता, क्योंकि साधु करेगा तो उसकी आंख में विकार उत्पन्न होगा, क्योंकि उसने उन इच्छाओं का दमन किया है, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि, संन्यासी नहीं उतर सकता। यदि वह सही अर्थों में न्यास कर चुका है, छोड़ चुका है, साक्षीभाव में आ चुका है, तो वह सन्यासी है और यदि वह संन्यासी है वह वह वह ध धान की की में उत ।rig di इसलिये ध्यान के लिये— न कुंआरे रहने की जरूरत है—न विवाह करने की जरूरत है— न स्त्री होना जरूरी है— न हिमालय में जाना जरूरी है— आप किसी भी स्थिति में हों— मगर आपके अन्दर एक तीव्र लालसा हो, इच्छा हो, एक भावना हो, एक दृढ़ निश्चय हो- समर्पण का।
यहां तीनों चीजें आवश्यक हैं। एक पहला साक्षीभाव- जहां आप परिवार को साक्षीभाव से देखते हुए सद्गुरू के पास खड़े हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं दूसरा, समर्पण- अपने आपको साक्षीभाव में रखते हुए से से, विचारों से, प्राणों से, भावनावन को आप सम समर Quali गुरू क्या कर रहा है? इसकी तुम्हें गणित करने की जरूरत नहीं, गुरू क्या कह रहा है, तुम्हें ये देखने की जरूरत है। और तीसरा, प्रबल इच all'avore a
प्रश्नः क्या ध all'avore a
जब आप ध्यान में पहुँच गये, तब जप हो ही नहीं सकता, फिर कोई चिंतन नहीं रहेगा। एक तरफ आप आँख बंद करेंगे और दूसरी तरफ आप लक all'avore a ध्यान का ध्येय है 'न' जहाँ कुछ भी अहसास नहीं है, शरीर का भी, प्राणों का भी और मन का भी - है है ही नहीं, तो फिर मा कहां से आ? लक्ष्मी कहाँ से आ गई? फिर मंत्र-जप कहाँ से आ गया? ध्यान जहाँ है वहाँ पर मंत्र जप की आवश्यकता नहीं ं ध्यान जहाँ है वहाँ किसी प्रकार के क all'avore
क्योंकि इनको तो हम पहले शरीर पर ही छोड़ हैं और वहाँ से आगे बढ़क बढ़कर हमने जिस भाव-भंगिमा को स्पर Quali ऋद्धि-सिद्धि, महाकाली, छिन्नमस्ता, भुवनेश्वरी, धन-वैभव, यश-प्रतिष्ठा तो उसके चरणों में रहेंगे ही, क्योंकि वह उस स्थान पर है, जिसको पूर्ण कहा गया है, भौतिक रूप से भी, आध्यात्मिक रूप से भी और राजसी रूप से भी। जनक अपने आप में पूर्ण राजा थे, उनकी रानियां थी, परन्तु उसके बाद भी वे पूर्ण ब्रहारी थे थे कृष्ण सोलह हजार रानियों के पति होते भी पूर्ण ब all'avore a इसलिये पत्नी होना या प all'avore इसलिये ध्यान में माला, मंत्र-जप की आवश्यकता होती ही औ और जहाँ पर मंत्र जप है, वहाँ ध्यान नहीं है है है है है है है ध्यान और बाहरी क्रियाकलाप दोनों अलग-अलग तथ्य हैथ
प्रश्नः मन में कामुक और बुरे विचार उठते रहते ह Quindi, इनको दबाने के लिये क्या किया जाना चाहिये?
मन में कामुक और बुरे विचार इसलिये उठ रहे हैं, क्योंकि आपने स्वयं को पहचानने की क्षमता को भुला दिया है है आपको इस बात का अहसास नहीं है हीरा क्या है, और कंकड क्या है? उज्ज्वलतम हीरा कोयले की खदान से ही निकलता है। जहां कोयला पैदा होता है, वहीं हीरा पैदा होता है, एक ही धरती पर एक ही खान में, किन्तु उसे पहचानने की क्षमता होनी च चाहिये। यह इस बात पर निर्भर है कि, आप कंकड़-पत्थर चुनते हैं, कोयला चुनते हैं या हीरा चुनते हैं- यह तो आपकी इच्छा की बात है और यदि ऐसे विचार मन में हैं तो इनको दबाने की आवश्यकता नहीं है, दबाने से तो ये और ज्यादा उभर कर सामने आयेंगे। गेंद को पृथ्वी पर जितना जोर से मारेंगे, वह ही ज्यादा दबेगी औ औ वह जितनी ज all'avore
यदि आपके कामुक विचार हैं तो उनको रूपान्तरित कर सकते हैं हैं यदि स्त्री की तरफ मोहान्ध हैं, तो आप नदी की तरफ मोह करिये, आप फूल की तरह अपने आपको झुकाइये, आकाश में टिमटिमाते तारों से बात करना सीखिये, हवा से बात करने की क्रिया सीखिये, पेड़ों के झुरमुट के बीच में बैठकर अपने आप का काम में रूपान्तरण हो जायेगा, क्योंकि जो काम, जो धारणा, जो विकार आप स all'avore वासन्ती हवा से प्रीत होने, आपको टिमटिमाते हुये तारों में एक अजीब सी आनन आनन्द की अनुभूति होने लगेगी लगेगी
इसलिये इन कामुक और बुरे विचारों को दबाने की आवश्यकता नहीं है, इनको रूपान्तरित करने की आवश्यकता है— और रूपान्तरित करने के लिए संगीत आपका सहारा बन सकता है, चित्रकारी आपका सहारा बन सकती है, गायन आपका सहारा बन सकता है, प्रकृति आपका सहारा बन सकती है—और सबसे ज्यादा आप अपने आपका सहारा बन ईकता ंकता जब आप अपने आप से प्रेम करने लगेंगे, फिर आपको दूसरों से प्रेम करने की जरूरत ही नहीं होगी जब आप अपने आपके प्रति मोहग all'avore इसलिये इन विचारों को दबाने की आवश्यकता ही नहीं है, इन्हें रूपान्तरित करने की आवश्यकता है यह बाहरी भेद, रूपान्तरित करना भी बाहरी भेद है है, यह विचार आन भी बाहरी भेद और बाहरी भेदों को अपने प प्रयत से रूपानरित किया सकता हैा है हैrigere
प्रश्नः क्या कोई ऐसा मंत्र -जप या विधि है, जिससे जल्दी से जल जल्दी ध्यान लग जाये?
पिछले पच्चीस हजार वर्षों में ऐसा कोई मंत्र-जप या ऐसी साधना विधि नहीं बनी है, जिसके द्वारा जल्दी से जल्दी ध्यान लग जाये।। ध्यान ऊपर तलछट से हो ही नहीं सकता और मंत all'avore a और लक्ष्मी का मंत all'avore मैं बलवान होना चाहता हूँ, मैं ताकतवान होना चाहता हूँ, मैं शत्रुओं को परास्त करना चाहता हूँ मैं बगलामुखी मंत्र जप कर रह– हूँ यह ऊप ऊपरी तलछट है।।
और ऊपरी तलछट अपने-आप में बाहरी कार्यों पर नियन all'avore a ध्यान के लिये इन वस्तुओं की आवश्यकता है ही नहीं, मंत्र जप से ध्यान संभव ही नहीं, ध्यान के तो अपने आपको भुला देना पड़ेगा। जिसने अपने आपको भुला दिया, उसने ध्यान की ओर पहली बार कदम बढ़ा दिया। सजग रह कर अपने दोनों हाथों को सद्गुostra अपने आप को उनके चरणों में समर्पित कर देने की क all'avore अपने आपको मिटा कर उनमें पूर्णरूप से लीन की क्रिया को तीसरी सीढ़ी कहते हैं हैं उनके सुख और दुःख में ही अपना सब कुछ समझने क क्रिया को ध्यान की चौथी स स्थिति कहते हैं हैं और इसके लिये कोई मंत्र जप है ही, इसके कोई म माला है ही नहीं, इसके लिये भी प प्रकार के क्रियाप की आवश्यकता है ही नहीं नहीं।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। °
इसलिये मंत्र जप के माध्यम से ध्यान नहीं हो सकता, ये अधकचरे साधु, पाखण्डी पंडित ऐसा मंत्र दे सकते हैं- ध्यान के लिये मंत्र करते समय या राम-राम करते समय आप ध्यान में लीन हो जायेंगे, यह भ्रम है, यह धोखा है, यह छल है, यह गुमराह करने की प्रकृति है, क्योंकि जहां विचार है, वहां धां जो सब कुछ छोड़ देता है, वह सब कुछ प्राप्त कर सकईा त टुकड़ों-टुकड़ों में खाने से सब कुछ प्राप्त नहीं हो सकता, क all'avore ज्योंही हम पत्नी को प्राप्त करना चाहते हैं, ज्योंही हम पुत्र को प्राप्त करना चाहते हैं, तो इस रूप में कंकड-पत पत्थर ही इकट इकट क क रहते है एक पत्नी, दो पत्नी, दस पत्नियां, प्रेमिकायें, बीस प्रेमी, पांच लाख रूपये, दस लाख रूपये- ये सब कुछ तो ऐसा ही है, जो यहीं पर है, आगे तो कुछ जा नहीं सकता, दरवाजे तक भी नहीं जा सकता, वहां तो आपकी अर्थी अकेली ही जायेगी।
वह धन जो अद्वितीय है, जिसको आन्नद कहा गया है, वह इन चीजों से नहीं प्रापč हो सकत सकत सकत सकत सकत इन चीजों को छोड़ने पर ही अखण्ड आनन आनन की की प्राप हो सकती है है है है है है है है है है है है है जिसने अखण्ड प्राप्त कर लिया, उसके सामने ऐसे ध्येय तो कंकड पत्थर की तरह ही हैं वह ठोकर मार देगा हीरों को, क all'avore हैं। और आप ज्यों ही नर से नारायण बनेंगे, त्योंही लक all'avore आप शांत समुद्र बन सकेंगे, तभी आप जहर— जो शेषनाग का जहर है, उस पर आराम से लेट सकेंगे, जहर आपके शरी में व्य य हो हो प पायेगा, बाहens इसलिये ऐसी किसी भी विधि के माध्यम से भूलकर भी ध्यान की ओर बढ़ने की कोशिश मत करना, क्योंकि वह समय का अपव्यय होगा।
Cosa vuoi fare?
ध्यान से आगे की जो स्थिति है, वह धारणा है। धारणा का मतलब है- 'मैंने अपने आपको अपने आप में अवस्थित कर लिया है, मैं अपने आप में लीन हो गया हूँ' ध्यान तक तो गुरू तुम्हें अपने साथ ले जाता है, उसके बाद गुरू तुम्हें छोड़ देता है। गुरू तुम्हें उस जगह ले जाकर खड़ा कर देता है, जहाँ गुरू बनने की क्रिया शुरू हो जाती है। जब तक तुम शिष्य हो, तब तक तुम उसकी उंगली पकड़कर चल रहे हो, मगर ध्यान की अन्तिम अवस्था पर पहुँच कर गुरू तुम्हें छोड़ देता है, क्योंकि उसे मालूम है- अब मैं उसे गुरू बनने की ओर प्रवृत्त कर रहा हूँ। उसको मैं सूर्य बनाने की ओर प्रवृत्त कर रहा हूँ। अभी तक तो यह दीपक था, मगर अब इसमें क्षमता आ गई है कि, जो कुछ मैंने दिया है वह खो नहीं सकता, इसके हृदय जम गई है मेरी बात। ध्यान की जिस अवस्था में वह पहुँचा है, उस अवस्था से वापस नहीं आयेग आयेग। संसार में रहेगा भी तो, साक्षीभाव में रहेगा, एक दिखावे के रूप में ही रहेगा, क्योंकि वह इस संसार का ही प्राणी है, परिवार का एक सदस सदस सदस सदस है है। साक्षीभाव के बीच में वह उस परिवार के साथ हंसता, रोता, मुस all'avore a यह बस बाहरी क्रियाकलाप इसलिये है वह संस संसार में, वह परिवार में है
मगर tiva पूर्णता के साथ में है, अब यह वहां से हट नहीं सकता। अब बाहरी मोह-माया इसको व्याप्त नहीं हो सकती, अब यह मुझसे परे नहीं हो सकता, अब इसके हटने क क्रिया नहीं है है है है है है है है है है है जब उसमें द्रष्टा भाव आ जाता है— तब गुरू उंगली छोड़ देता है, तब गुरू उसका हाथ छोड़ देता है है जब वह धारणा शक्ति में खड़ा हो जाता है, उसके पांव में मजबूती आ जाती है, तब वह आगे की स्थिति प्राप्त कर लेता है— और जहाँ आगे की स्थिति प्राप्त होती है, वहां स्थिरता आने लग जाती है, जब हृदय में धारणा शक्ति प्रारम्भ हो जाती है, तब वह विचलित नहीं होता, तब किसी के ढेर को देखकर उसमें लोभ व्याप्त नहीं होता।
इस अवस्था में पहुँचने पर, इससे आगे का कदम है- धारणा शक्ति। यहाँ पहुँचने के बाद वह पीछे हटता ही नहीं है। जिसने एक बार उस आनन्द को चख लिया, उसे ऐसा लगेगा बहुत गंदा समाज है, घिनौना और घटिया, झूठ, छल और कपट से भरा हुआ—वह उस जगह अवस्थित हो जाता है, जहां अवस्थित होने की क्रिया को धारणा कहते हैं। धारणा शक्ति ध्यान के आगे क क्रिया है, वहाँ ध्यान अपने आप आगे बढ़ेग बढ़ेग बढ़ेग बढ़ेग उस समय उसको फिर गुरू की जरू ओ नहीं है है क क आगे आगे आगे आगे वह वह वह अपने आप आप आप आप आप है है ओ ओ ओ ओ बढ़त बढ़त नहीं नहीं क क क उसके आगे आगे आगे आगे वह वह वह वह अपने अपने आप आप आप आप है है है।।। बढ़त बढ़त नहीं नहीं क क उसके आगे आगे आगे आगे आगे आगे वह वह वह वह वह अपने अपने आप आप आप आप है है है l'hanno वह स्वयं अपने आप में रूपान्तरित हो जाता है— तब उस में रूपान्तरित होने की क all'avore वह नर से नारायण बनने की ओर आधी से ज्यादा दूरी पार कर लेता है और धीरे-धीरे परिवर्तित होता हुआ धारणा शक्ति में पहुँचते ही वह अपने आप परमहंस अवस्था में पहुँच जाता है।
'परमहंस'- हंस के समान स्वच्छ और निर्मल, जिसमें किसी प्रकार का मैल नहीं है, छल नहीं है, छूठ नहीं है, कपट नहीं है, मोह नहीं है— और किसी भी प्रकार की असात्विकता नहीं है— गोपियों के बीच रहकर कृष्ण अपने आप में योगेश्वर हैं— राधा से प्रेम करता हुआ भी वह अपने आपमें ब्रह्मचारी है— हजारों रानियों का पति होते हुए भी वह अखण्ड ब्रह्मचारी है- और महाभारत का युद्ध करते हुये भी वह अपने आप में जगद्गुरू है- 'कृष्णं वंदे जगद्गुरू' यह स्थिति धारणा शक्ति के माध्यम से ही सम्भव है। धारणा शक्ति तक पहुँचने के लिये कुछ प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन ध्यान तक पहुँचने के लिये तो सद्गुरू की जरूरत है और ध्यान के आगे धारणा तक पहुँचने के लिये सद्गुरू नहीं है, क्योंकि वहां तो अकेले ही यात्र करनी है, क्योंकि वहां से आगे का रास्ता उसका राजपथ है, कोई पगडंडी नहीं है, अटपटी जगह नहीं है, अस्पष्ट नहीं है, यह सीधा राजपथ है, जहां चलते रहना है— उस पथ पर अपने आप उसके पैर बढ़ेंगे—अपने आप उसकी मस्तियां बढेंगी—और वह अपने आप उस जगह खड़े हो जायेगा- जिसे परमहंस अवस्था कहई गयत
प्रश्नः पल-पल, चौबीसों घंटे सजग कैसे रहा जा सकहा ई?
चौबीसों घंटे सजग रहने के लिये किसी प्रकार का प all'avore a जब गुरू को तुमने अपने अन्दर धारण कर लिया तो वह अपने आप में सजग है ही, क्योंकि वह गुरू शरीर नहीं है, क्योंकि वह गुरू तो परमहंस से भी ऊपर की अवस्था है- वह 'नारायणत्व' की अवस्था है, वह 'ब्रह्मत्व' की अवस्था है, वह 'पूर्णता' की अवस्था है— जब वह अन्दर है, तो जितनी बार भी हृदय धड़केगा, तो सद्गुरू की ही धड़कन होगी होगी गु गु शब शब शब के के बिन धड़क धड़क धड़क हृदय गु ... धड़कन के साथ एकाकार हो जाता है।
प्रत्येक धड़कन के साथ गुरू को सजग रहना पड़ता है- कहीं छल, झूठ, कपट या दूसरी मलिन चीज उसकी धड़कन के साथ नहीं धड़के— सजग तो गुरू को रहना है, तुम्हें साक्षीभाव से रहना है, क्योंकि सजगता तुम्हारे नेत्रें में शरीर में नहीं है , सजगता तुम्हारी धड़कन में है—और धड़कने के लिए हृदय को कहना नहीं पड़ता- तुम धड़को— वह तो ऑटोमेटिक क्रिया है, आप सोते हैं तब भी हृदय धड़केगा ही, आप जगते हैं तब भी हृदय धड़केगा, आप कार चला रहे हैं तब भी हृदय धड़केगा—और जब वह धड़केगा— और गुरू जाग्रत है, अतः वह तुम्हें अपने आप जाग्रत रखेगा ही पल-पल तुम्हें उस रास्ते पर बढ़ायेगा ही। आवश्यकता केवल इतनी ही है कि, तुम्हें अपनी धड़कन गु गुरू को एकाकार कर देना है। यह सजगता जीवन की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
प्रश्नः क्या धर्म के माध्यम से ध्यान व धारहा ईंम
धर्म हमारी चीज नहीं, हमने धर्म को स्वीकार नहीं किया है, धर्म तो हम पर थोप दिया गया है। मेरे मां-बाप tiva ये तो जिन मां-बाप के घर में जन्म लिया और वे जो थे, वही मुझे बनना पड़ा, इसलिये धर्म आन्तरिक प्रवृत नहीं नहीं है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है हैiato
धर्म बाह्य प all'avore a जब शरीर समाप्त हो जायेगा, तब तुम न हिन्दू रहोगे, न मुसलमान रहोगे, क्योंकि शरीर है तो तुम्हारा धर्म है— क्योंकि शरीर के माध्यम से तुमने धर्म को पहचाना है। मैं हिन्दू हूँ, इसलिये मुझे मंदिर के सामने झूकना चाहिये। मैं मुसलमान हूँ इसलिये मुझे मस्जिद के सामने झूकना चाहिये। यह 'हूं' शब्द अहंकार का द्योतक है, अहंकार तुम all'avore a जो शरीर धारण कर सकता है, वह ध्यान कैसे बना सकता है, ध्यान तो उसके बहुत आगे की चीज, सातवें तल पर है है इसलिये धर्म के माध्यम से ध all'avore इसलिये ध्यान के लिये- न हिन्दू है, न मुसलमान है, न ईसाई है, न सिख है। न निराकार है, न साकार है, न सगुण है, न निर्गुण है। न देवता है, न दानव है, न राक्षस है। न भाई है, न बहन है, न सम्बन्धी है, न रिश्तेदार है।
कुछ भी नहीं है, इसलिये धर्म के माध्यम से तुम ध्यान प्राप्त नहीं कर सकते, धर्म के माध्यम से धारणा भी संभव नहीं है, यह तो केवल बाह्य शरीर की अवस्था है— और शरीर की अवस्था से शांति और ध्यान को प्राप्त नहीं किया जा सकता ।
प्रश्नः कई साधु-संत और गुरू ध्यान की और धारणा की अलग-अलग विधियां बताते हैं, जबकि आपकी पद्धति सर्वथा अलग है, तो क्या वे सभी पदां गलत?
मेरी राय में कोई पद्धति गलत नहीं है। वह व्यक्ति गलत है, यदि उसे ज्ञान नहीं है, यदि वह केवल शब्दों के माध्यम से ही आपको भ्रमित करता है, तो वह है है - पद्धति गलत नहीं नहीं। नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं tivamente तिब्बत में ध्यान करने की विधि अलग है, वहां पर इन चित्त अवस्थाओं की आवश्यकता है ही नहीं, उन लामाओं की पद्धति बिलकुल हटकर है- उसके माध्यम से भी ध्यान की अवस्था प्राप्त होती है।
इसलिये मैं यह नहीं कहता- कोई विधि गलत है। विधि तो सभी सही हैं मगर व all'avore सही रास्ते को चुना ही नहीं और सही रास्ते पर चले ही नहीं— उन्होंने तो केवल भगवे कपड़े पहने, पाखण्ड किया, चोटी रखी, त्रिपुण्ड लगाया जटा बढ़ा दी, बाहरी वेश बदल दिया, बाहरी कपड़े बदल दिये— और बाहरी कपड़ों के माध्यम से कोई साधु या संत नहीं बन सकता।
बाहरी क्रिया-कलापो से वह साधु-संत नहीं बन सकता और जब वह साधु-संत है ही नहीं, तो फिर उसके विचार अपने आप में मिथ्या हैं, क्योंकि वह उस रास्ते पर चला ही नहीं— जब वह इस रास्ते पर चला ही नहीं, तो फिर वह बता ही नहीं सकता- 'ध्यान क्या चीज है?' वह तो शब्दों के माध्यम से केवल भ्रमित कर सकता है और शब्दों के माध्यम से तो कोई भी किसी को धोखा दे सकता है, छल कर सकता है, शब्दों के माध्यम से कोई भी किसी के सामने, किसी की प्रकार का पाखण्ड प्रदर्शन कर सकता है — शब्द अपने आप में ध्यान नहीं है।
मैं किसी भी विधि को गलत नहीं कहता हूँ। इसलिये उन व्यक्तियों को वे चाहे साधु हैं, चाहे संन्यासी हैं, चाहे योगी, चाहे हिमालय में रहने वाले हैं च चाहे दिल दिल में हने रहने व व हैं प प प प प हैं हैं हैं दिल दिलrigली दिल में हने रहने व हैं हैं प प प प प प हैं हैं हैं हते दिल दिलrigली में में रहने व हैं हैं हैं प प प प प हैं हैं हैं हते दिल uire प्रश्न यह है कि, क्या वे सही अर्थों में जानकार हैर? यदि वे जानकार है और उनको किसी अन्य विधि का ज all'avore a । देखना यह है- उस व्यक्ति के पास खाली शब्दों की लफ्रफाजी है या सही विधि है है देखना यह है, कि क्या वह रास्ते पर चला हुआ है या केवल भ्रमित कर रहा है इसलिये मुझे किसी साधु-संन्यासी से विरोध नहीं, मुझे केवल उसके अहंकार से विरोध है, उसकी नासमझी से विरोध है, उसकी लफ्रफाजी से विरोध है है है वह जो भ करमित करहा है, उससे वि वि है
Cosa vuoi fare?
जब ध्यान के बाद व्यक्ति धारणा शक्ति में पहुँच जाता है, तब गुरू अपने आप में निश्चिन्त हो जाता है- अब यह अपने रास्ते पर निरन्तर गतिशील होगा ही, क्योंकि बाहरी संसार की कोई विषय वासना, कोई भावना इनको गंदा नहीं कर सकती, इसको मैला नहीं कर सकती, इसको हटा नहीं सकती— और वह उसका साथ छोड़ देता है— मगर वह देखतµi गतिशील नहीं होगा, तो फिर पीछे की ओर हटेगा, गति तो है ही, चाहे आगे की ओर हो, या पीछे की ओर हो
यदि वह आगे की ओर गतिशील नहीं हुआ, तो पीछे की ओर वापिस लौटकर एक साधारण सी स्थिति में आ सकता है, यह डर है— उस गुरू को भी डर रहता है, इसलिये वह उस जगह खड़ा रहता है, जहाँ ध्यान की क्रिया समाप्त होती है— और उसको धारणा की ओर बढ़ा देता है— ज्योही वह पीछे हटत हटतriguto है, त्योंहि गुरू उसको धक्का देकर धारणा की ओर बढ़ा देता है है।।। है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है है tiva यद्यपि ऐसे क्षण बहुत कम होते, मगर फिर भी एकाध बार ऐसा हो सकता है है
इसलिये गुरू की क्र Devo ओर एक खतरनाक ढलान होती है। मगर ऐसा बहुत कम हो पाता है, जिसने ब बार उस आनन्द को चख लिय लिया, अनुभव कर लिया, वह इन विषय-वासनाओं में हो पायेगा—? वह तो बढ़ेगा ही और निरन्तर बढ़ता रहेगा और जब धारणा शक्ति मजबूत हो जाती है, तो गुरू निशि्ंचत हो जाता है- वह राजपथ पर है, क्योंकि उसके आगे की क्रिया, पूर्णता की क्रिया- समाधि है। समाधि का मतलब है- अपने आपको पूर्ण रूप से विस्थॕृत नेृत नेृत समाधि के पांच अर्थ हैं-
समाधि का अर्थ है- अपने आपको पूर्णता तक पहुँचा ाेा तक पहुँचा ाेा
समाधि का अर्थ है- पूरे ब all'avore
समाधि का अर्थ है- समस्त ब्रह्माण्ड में शरीर विचड में शरीर वनचड
समाधि का अर्थ है- समस्त ब all'avore
समाधि का अर्थ है- उस ब्रहाण्ड की किसी भी हलचल में हस्तक्षेप करके उसको अपने या सामने वाले के बन बना देना।
जब ऐसा हो जाता है, तो फिर मृत्यु उसे नहीं छू सकती, क्योंकि वह मृत्यु से ऊपर उठ जाता है, काल से भी ऊपर उठ जाता है, फिर समय उसको स्पर्श नहीं करता, फिर दो सौ साल, पांच सौ साल, हजार साल उसके सामने कोई मायने नहीं रखते। दस हजार साल भी उसके लिये उतने ही हैं, जितना कि एक सैकण्ड या एक मिनट होता है, फिर वह अजन्मा होता है, निर्विकार होता है, निश्चिन होता है है है
यह अलग बात है, यदि वह चाहे कि जन जन्म लेने का भाव प्रदर्शित करना है— जन्म लेना औरण होना दोनों ही अलग-अलग चीजे हैं हैं।।।।। हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं tivamente कृष्ण ने जन्म नहीं लिया, कृष्ण अवतरित हुये, ऐसा लगा देवकी को कृष्ण मेरे गर्भ से उत्पन्न हुआ— ऐसा अहसास हुआ हुआ वेदव्यास ने कहा- नवें महीने तक भी देवकी यह अहस अहसास ही नहीं हुआ हुआ, वह गर्भवती है अचानक उसकी आँख खुलती है, तो समाने रोता हुआ कृष्ण उसे दिखाई देता है— और उसका मातृत्व, वात्सल्य जाग्रत हो जाता है—उसके स्तनों से दूध निकलने लग जाता है—वह अपने सीने से उसको लगा लेती है—यह जन्म लेने की क्रिया नहीं है—यह अवतरित होने की क्रिया है— और उस एक क्षण के लिए वह विस्मृति में डूब गई— क्षणमात्र में एक ऐसा घटना घटित हो गई, जो अपने आप में अद्वितीय है— और उस अद्वितीय घटना में उच्चतम स्थिति का व्यक्तित्व अवतरित हो गया। समाज ने उसको जन्म कहा पर योगियों ने उसको अवतरह थत
समाधि अवस्था तक पहुँचा हुआ व्यक्ति जन्म नहीं लेि जन्म नहीं लें वह चाहे तो अवतरित हो सकता है। उसका चेहरा अपने आप में दैदीप्यमान हो जाता है, वह अपने आप में उस आनन आनन्द को प्राप्त कर लेता है, जिसे वेदों-
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णदमुच्यते प ूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवा व शिष्यते।
उस पूर्ण में यदि पूर्ण मिला दें, तब भी पूर्ण रहेगा और निकाल दें तब भी पूर्ण ही रहेगा, क्योंकि ब्रह्माण्ड पूर्ण है, यह पृथ्वी पूर्ण है, मनुष्य पूर्ण है— और वही मनुष्य यह यात्र पूर्ण करता हुआ उस समाधि अवस्था तक पहुँचा जाता है - बूंद अपने आप में समुद्र बन जाती है- इस से समुद समुद्र बन जाने की क्रिया को ध्यान, धारणा और समाधि कहते हैं हैं हैं हैं हैं हैं कहते कहते कहते कहते कहते कहते कहते कहते
वास्तव में ही वे व्यक्ति- वह चाहे पांच साल का हो, वह चाहे साठ साल का हो, वह चाहे बालक हो या बालिका हो, वह चाहे यौवनवती हो, वह चाहे वृद्धावस्था को प्राप्त हो—अवस्था का कोई भेद नहीं है, यदि किसी व्यक्ति का सौभाग्य हो कि, उसको जीवन में सद्गुरू मिलें, कोई अद्वितीय व्यक्तित्व मिले, तो इस रास्ते पर गतिशील हो—मगर उसकी पहचान बहुत कठिन है— कठिन इसलिये, क्योंकि वह हमारे समाज का ही एक अंग बनकर रहता है, हमारे समाज की तरह ही वह हंसता है, रोता है, खिलखिलाता है— और उसके बावजूद भी वह अपने आप में अलग बना रहता है, अपने अन्दर साक्षीभाव रखता हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ
लोग उसको कामी कह सकते हैं, लोग उसको दुराचारी कह सकते हैं, उसको गालियां दे सकते हैं, उसको हल्का कह सकते हैं—बार-बार उनके मन में विभ्रम पैदा होता है— और इस भ्रम को ही माया कह सकते हैं। यह व्यक्ति बार-बार अपने आस-पास के परिवेश पर माया का आवरण डालेगा, क all'avore उन दो-चार हीरो को छाटने के ब बार-बार उसको माया का आवरण डालना ही पड़ेगा। ज्यों ही माया का आवरण डाला त्यों ही आस-पास के व्यक्ति, शिष्य, समुदाय सोचेंगे- यह व्यक्ति इतना महान हो ही नहीं सकता— संभव ही नहीं– – यह तो सामान्य आदमी है— यह भी बीमार पड़ता है— यह भी उदास होता है -यह भी चिन्तित होता है, फिर इस मह महापुरूष जैसे कौन -कौन से चिह चिह्न हैं? इसका उत्तर मैं इस लेख में पहले भी दे चुका हूँ-
जिसके पास बैठने से ही एक आनन्द, एक सुख की अनुभू ति होती है।
जिसके पास बैठने से ही एक तृप्ति सी अनुभव होती हैी हैि
Sedendosi accanto a chi si sperimenta la perfezione.
La cui partenza lascia un senso di vuoto,
जैसे सब कुछ तो वही है, लेकिन सब कुछ खत QI हो गय गय गय गय गय गय गय गय गय गय गय गय गय गय गय गय गय गय गय गय गय गय गय गय गय वही है है, आश mail वही है, क mail वही वही, भोजन वही है, सब वही है है है वह आनन आनन आनन की अनुभूति नहीं नहीं है है है है है नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं tivamente शरीर तो वैसे का वैसा है मगर उसमें स्पन्दन नहीं हें
उस स्पन्दन को गुरू कहते— उस स्पन्दन को पूर्णत्व कहते हैं— और ऐसे पूरogo सर्वोच्च निधि है, यदि वह आपको अपने पास खींच ले।
यह हजारों-हजारों जन्मों के पुण्य की प्रतीति है कि वह आपकी उंगली पकड़ कर उस रास्ते पर गतिशील करे- जो रास्ता मनुष्यता से समाधि अवस्था का है, जो रास्ता बूंद से समुद्र बनने की प्रक्रिया है, जो रास्ता जमीन से गौरी-शंकर पर्वत के शिखर तक पहुँचने की क्रिया है और जब आप गौरी-शंकर के शिखर पर पहुँच कर खड़े हो सकेंगे, वह आपके जीवन का श्रेष क्षण होगा, तब पूरे विश विश की आँखे आप प टिकी टिकी होगी।
आप सभी मेरे साथ उस गौरी-शंकर शिखर तक पहुँचे, सं Per quanto riguarda l'argomento, आपके माँ-बाप धन्य ह Sì, पिछली और आने वाली पीढियां गौरव के साथ आपको अप ना कह सकें— और मेरे हृदय में आपकी अवस्थिति बन सक े— मेरे हृदय में आप स्थापित हो सकें। मैं ऐसा ही आपको आशीर्वाद देता हूं।
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
Signor Kailash Shrimali
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