सद्गुरूदेव ने स्वयं कहा है- तुम केवल हो और तुम्हें समुद्र बनना है है आज तुम समुद्र में मिलोगे तो कल तुम बनक बनकर आकाश में छाओगे। जब तक ब्रह्मत्व ज्ञान की उपलब्धि नहीं हो पाती है तब तक पूर्णता नहीं आ पाती और जब नहीं आ पाती, तो गुरू को स्वयं ही आगे बढ़कर कुछ ऐसी क्रिया करनी पड़ती है कि उनका शिष्य कुछ बन सके, उसमें शिष्यत्व भाव का पूर्णता से जागरण हो सके, क्योंकि शिष्यता का यह भाव ही तो जिसके सहारे समस्त सिद्धियां प्राप्त होती हैं अभिषेक का तात्पर्य है सिंचन करना, शिष्याभिषेक का अर्थ है शिष शिष में मonto सद्गुरूदेव द्वारा शिष all'avore
शिष्य ही वास्तविक रूप से गुरू की पहचान है। शिष्य को जीवन में ऊर्ध्वगति प्रदान करते हुये गुरू को सदैव प्रसन्नता होती है और जो अपने शिष्य को योग रूपी ज्ञान से केवल आध्यात्मिक सृजन ही नहीं अपितु भौतिक रूप से वर्चस्व की ओर ले जा सकें। उसमें सम्पूर्ण चराचर ब्रह्म का ज्ञान स्थापित कर सकें उसे अपने संस्पर्श द all'avore जो दीक्षा की माध्यम से क क्रिया विस all'avore उसका अभिषेक स्वयं अपने हाथों से करें, अपनी को अपने प्राणमय कोष से पू पूर्णता कि क all'avore
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